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Showing posts from March, 2018

ख्वाहिशें

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ख्वाहिशें जो कभी खत्म नहीं होती हैं, जिसकी वजह से हम उस असल जिंदगी को भूल जाते हैं जो हमने बचपन में स्कूल में दोस्तों के साथ गुजारी थी। कितना सोचते थे, बडे होंगे तो साथ रहेंगे। साथ-साथ पढेगें। एक साथ जिंदगी के उन मंजिलों तक पहुंचेगें। कभी हमारे सपने क्लास रुम के उस पीछे वाले बेंच से आगे नहीं आए। और न ही हमारे सपने क्रिकेट के उस मैदान से बाहर गए थे। जहां आज सूनापन फैला हुआ रहता है। आज भी स्कूल की वो बाउंड्री वाल याद आती है। जहां कभी हम दोस्तों के साथ स्कूल से बंक मारा करते थे। फिर से याद आता है, वो दिन। लेकिन क्या करें ख्वाहिशें बना ली है हमने और दोस्तों ने भी। जिंदगी से सबकुछ हासिल करने का। लेकिन इन सबमें हम खुद को भुल गए। शायद हमारे गुरुजी को भी हम हमारे दोस्तों की शैतानियां याद आती होगीं। कितना परेशान करते थे हमसब। आज भी कभी लगता है, कि वो हमें यूहीं डाटेगें और कल फिर हम स्कूल से बंक मारेगें।

कुछ जिंदा सा हूं मैं...

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कुछ जिंदा सा हूं मैं... रोजाना की तरह आज भी शहर में एक आवारा बनकर घुम रहा था। कि मेरी मुलाकात सडक के बीचोबीच बैठी शोर से हो गयी। दोपहर की कडी धूप में उदास बैठी थी। शायद कोई बिछड गया हो ऐसे उदास थी। मेरी नजर उसपर पडी तो मैं उसके पास जाने लगा। मुझे पास आता देख पहले वो डर गयी, और जाने लगी तभी मैंने आवाज दिया। सुनिए!! उसने मुडकर मुझे देखा, बोला आपने मुझे बुलाया, मैंने कहा हां,, मैंने पुछा क्यों परेशान हैं आप, क्या कुछ खो गया है, या रास्ता भटक गए हैं, कहीं जाना है आपको तो बता दिजिए शायद मुझे वहां का पता मालूम हो। उसने मेेरे चेहरे की तरफ गौर से देखा, जैसे कुछ पढने का कोशिश कर रही हो। फिर बडी शांत स्वर में बोली। हां शायद मैं भटक गयी हूं। मैंने फिर पूछा कहां रहती हैं आप कहां से आयी हैं। उसने बोला पता नहीं कैसे मैं यहां आ गयी, पहले तो मैं गावों में पेडों की ओट से हवा के साथ चलती थी, तो लोगों को बहुत अच्छा लगता था। जब भी गांवो में जब मां अपने बच्चों को आवाज देती थी, तो उनकी आवाज के साथ चलती तो उनको बहुत अच्छा लगता था। खेतों के पगडंडियों से जब बच्चे कतार बनाकर चलते थे, और चिल्लाते थे, तो उनक