आजकल नींद कड़वी हो चली है...

आजकल मैं ख़ुद को अंधेरे में ढूंढने निकल पड़ता हूं। मिलना तो नहीं पाता है ख़ुद से, लेकिन ढूंढते हुए कई बार यादों और वादों के उस नदी तक पहुंच जाता हूं, जहां अक्सर मैं अकेले घंटों तक समय काट देता हूं । जहां मैंने अपने सपनों के बगीचे में देवदार जैसे कई पेड़ लगाए हुए हैं। उनकी छांव में अक्सर मैं खुद को एक छोटी सी चींटी की तरह पाता हूं। उसके नीचे बैठने पर ऊबने जैसी कोई भावना मन में नहीं आती है, और यहीं पर शुरु होती हैं नींद और सपनों की आपसी लड़ाई। आख़िरी जीत किसकी होती है ये कहना मुश्किल होगा क्योंकि सपना पूरा नहीं होता और नींद बीच में ही साथ छोड़ देती है। इस हार जीत में आंखों का और दिमाग़ का सबसे ज्यादा नुकसान होता है, या इसको इस भाषा में भी कह सकते हैं कि आजकल मेरी नींद कड़वी हो चली है, और सपनों का दौर ऐसा है कि जब नींद ही नहीं आती है तो सपनों का आना भी एक सपना सा हो जाता है। रोज़ इसी उधेड़ बुन में रात गुजरती है कि आज की नींद थोड़ी मीठी होगी, लेकिन रात कब गुजर जाती है सुबह का उजाला भी नहीं बता पाता है। लेकिन यहां मैं केवल अपनी नहीं कर रहा हूं मुझे पता है कि तुम्हारा हाल भ...